छोटे लोहिया ने कहा था.......

  • समाजवाद महज सियासती लफ्ज नहीं है, इसे किसी भी समाज का सम्पूर्ण आधार माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति युवा वर्ग को वैचारिक रूप से पतन की ओर ले जाती है। इससे निकट भविष्य में ऐसा संकट पैदा होगा, जिससे पार पाना आसान नहीं होगा।
  • विदेशी शक्तियों के दबाव में कृषि पर सब्सिडी घटाने के प्रयासों के परिणाम भयावह होंगे और न सिर्फ देश की खेती तबाह हो जायेगी बल्कि उसके कारण देश में खाद्यान्न का उत्पादन गिरेगा, भुखमरी के हालात पैदा होंगे और परेशान हाल किसानों की आत्महत्यायें बढ़ेंगी।
  • गांधी झोपड़ी में रहते थे और लोहिया का कोई घर नहीं था। डा0 लोहिया ने समाजवाद का दर्शन रेल में यात्रा करते हुए या आम आदमी के बीच घूमते हुए दिया। लोहिया जो सिद्धान्त सोचते थे उसे हासिल करने के लिए वैसा ही जीवन जीते थे।
  • त्याग-तपस्या, सादगी और ईमानदारी से विमुखता की स्थिति आज यह हो गयी है कि जो जितना पढ़ा लिखा है, उतनी ही तिकड़म और बेईमानी कर रहा है। अब शिक्षा का उद्देश्य ही बदल गया।
  • सड़क माल ढोने के लिए बनती है और खेती माल पैदा करने के लिए। होशियार आदमी हमेशा माल की पैदावार को तरजीह देता है। उपजाऊ जमीनों पर कल कारखाने लगाने और सड़कें बनाने का नया प्रचलन किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता।
  • इंसान की सबसे कीमती चीज है हंसी। घोड़ा नहीं हंसता, हाथी नहीं हंसता, पेड़-पौधे नहीं हंसते, केवल इंसान और उसका बच्चा हंसता है। हिन्दुस्तान के 20-25 करोड़ लोगों के चेहरे की हंसी/मुस्कान छीनकर आप थोड़ी देर के लिए तो गद्दी पर रह सकते हो लेकिन इस मुल्क को चला नहीं सकते।
  • हम चाहते हैं, गाँव, जिला, सूबा और केन्द्र इस तरह का चैखम्भा राज हो। चैखम्भा में भी कलेक्टर या पटवारीराज वाला रिश्ता न हो, कि दिल्ली कलेक्टरी और लखनऊ पटवारीगिरी करे।
  • आजादी की लड़ाई का केन्द्र था उ0प्र0 और उसके बाद भी हर महत्त्वपूर्ण आन्दोलन में भागीदार रहा है। इसलिए दिल्ली में बैठे लोग इसकी उपेक्षा न करें।
  • संक्रमणकाल में युवाओं की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। मर्यादा व शील मिलाकर अनुशासन बनता है जिसे युवाओं को आत्मसात करने की जरूरत है।
  • समाज बदलने के लिये महात्मा गांधी व डा0 राम मनोहर लोहिया ने जो संघर्ष शुरू किया था, उसको आगे बढाने की आवश्यकता है। सामाजिक परिवर्तन के सपने को साकार करने के लिए युवा वर्ग को दृढ़ संकल्प के साथ कार्य करने की जरूरत है।
  • मौजूदा न्यायिक प्रणाली में जो खामियां आई हैं, इस पर नए सिरे से देश में खुली बहस होनी चाहिए। इसी बहस के आधार पर न्यायिक प्रणाली को प्रलोभन के चंगुल से बचाने का कानून बनना चाहिए।
  • समाजवाद का औसत लक्ष्य सभी को एक साथ खड़ा करना है। 30 वर्ष पहले पेट्रोल, गेहूं और चावल एक भाव था। पेट्रोल एक रुपया लीटर, गेहूं और चावल भी एक रुपया किलो था लेकिन आज पेट्रोल 50 रुपया लीटर और गेहूँ 9 रुपया किलो बिक रहा है। गरीबों को पसीने का पूरा उचित मूल्य मिलना ही चाहिए।
  • समाजवादियों को देश की तकदीर बदलनी है तो भारी बलिदानों के लिये तैयार रहना होगा। समाजवादियों को राष्ट्रीय मुद्दों पर हर स्तर पर बहस चलानी चाहिए। सिर्फ नेताओं के भाषण सुन लेने भर से सामाजिक आर्थिक परिवर्तन की राजनीति नहीं गरमायेगी।
  • कितनी बदनसीबी है कि गरीब के घर में चूल्हे पर दाल की हांड़ी नहीं चढ़ पा रही है। दाल 48 रुपये किलो बिक रही है और करोड़ों गरीबों की खरीद क्षमता से बाहर हो गयी। दूसरी ओर सत्ता में बैठे एक-एक मंत्री पर रोजाना 5-7 लाख रुपया खर्च होता है। इतनी भारी असमानता गहरी चुनौती है।
  • जनता भूख की मार सहते-सहते सो गयी है। जनता को जगाने की जरूरत है। यह काम समाजवादियों को ही करना है। भेदभाव के बारे में सोचोगे तो दिमाग गरम हो जायेगा। तब गरीब की लड़ाई लड़ सकोगे।
  • आने वाले 100-50 साल के हिन्दुस्तान के लिए सपना जरूर देखते रहना। बड़े सपने को पूरा करने के लिए बड़ा संकल्प और संकल्प को पूरा करने के लिए साहस भी बड़ा होना चाहिए।
  • असल चीज है दिमाग, इसको हम कैसे साफ करें। यह जो रोग लगा हुआ है अंग्रेजी वाला, यह एक तरह का दिमागी कोढ़ है। जब तक यह पक नहीं जायेगा, हम हिन्दुस्तान को स्वस्थ शिक्षा पद्धति नहीं दे सकते।
  • जब सारे बच्चे, चाहे बड़े घर के हों या छोटे घर के, एक साथ पढ़ेंगे, बोलेंगे तब हिन्दुस्तान की नौकरशाही से लेकर लोकशाही तक सोचने के लिए मजबूर होगी कि सभी बच्चों की तालीम एक समान हो।
  • गरीब के बारे में सोचने की फुरसत आज किसी को नहीं है, समाजवादियों पर यह बड़ी जिम्मेदारी है।
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