जनेश्वर मिश्र-एक प्रेरक जीवन दर्शन


इनकी चंद तस्वीरें कहीं महफूज कर लीजै
सवाल उठेगा मुस्तकबिल में ऐसे लोग, कैसे थे?
जमीं पर रहते थे, फरिश्तों के जैसे थे

समाजवाद के अनन्य व्याख्याता, शाश्वत व नवप्रवर्तनकारी वैचारिकी के क्रांतिधर्मी चिन्तक, शोषितों-पीडि़तों-वंचितों के प्रबल पैरोकार, त्यागमूर्ति, लोहिया के अप्रतिम अनुयायी जनेश्वर मिश्र का उल्लेख आते ही स्मृति पटल पर कई चित्र स्वतः ही उभरने लगते हैं। एक तस्वीर सामाजिक रूढि़यों का सार्वजनिक प्रतिकार करते हुए किशोर की होती है, दूसरी तस्वीर संघर्ष के बल पर समाजवाद और लोकतंत्र की अलख जगाने वाले प्रतिबद्ध युवा की होती है, तीसरी तस्वीर जनता के दुःख-दर्द-दंश एवं दलन को स्वर देने वाले प्रखर सांसद की, चैथी तस्वीर सत्ता के केन्द्र में बैठे एक ऐसे कुशल प्रशासक की होती है जिसे सत्ता की विकृतियां स्पर्श न कर सकीं, पांचवीं तस्वीर बिखराव एवं विखण्डन की दौर में भी साथियों को सहेज कर रखने वाले प्रतिबद्ध संगठक की होती है, छठीं तस्वीर में जो चेहरा उभरता है वह गरीबों और कमजोर कार्यकर्ताओं के अभिभावक का होता है। एक जनेश्वर अनेकानेक रूप। निःसन्देह जनेश्वर देश के उन महान नेताओं के अग्रगण्य हैं जिन्होंने अपनी सादगी, संजीदगी, शुचिता व संघर्ष के आधार पर इतिहास को नई गति दी और देश तथा समाज के समक्ष नये प्रतिमान गढ़े। आचार्य नरेन्द्रदेव, लोक नायक जयप्रकाश नारायण, डा0 राम मनोहर लोहिया, मधुलिमये, लोकबन्धु राजनारायण, किशन पटनायक, श्रीधर महादेव जोशी, कर्पूरी ठाकुर, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली की परम्परा को उन्होंने आगे बढ़ाया। वे अपने दौर के उन महान युग-पुरुषों में से एक हैं जिनका अन्र्तमन सदैव मानवीय संवेदनाओं एवं व्यवस्थागत विषमताओं तथा त्रासदियों से द्रवित रहा और जबभी वे बर्हिमुखी हुए तो विसंगतियों के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष के परचमवाहक बने। यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण कथन नहीं होगा कि उन्होंने अपने ज्ञान, चिन्तन, त्याग और अदम्य साहस की ज्योर्तिमय किरणों से भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश में नई राजनीतिक चेतना को जन्म दिया, गरीब और पिछड़े वर्ग के नेतृत्व को प्रतिष्ठापित किया। उनका जीवन-दर्शन अपने आप में एक संदेश और विरासत है, एक ऐसी थाती है जो वर्तमान और आने वाली पीढ़ी के लिए पथ-प्रदर्शक की भूमिका युगों-युगों तक निभाती रहेगी।

डा0 राममनोहर लोहिया के शिष्य और ‘‘छोटे लोहिया’’ के नाम से जगत्ख्यात जनेश्वर मिश्र का जन्म संवत् 1990 की श्रावण शुक्ल पूर्णिमा तद्नुसार 5 अगस्त 1933 को बलिया के शुभनथहीं गांव में हुआ था। यह गंगा नदी के किनारे बसा ढ़ाही का उपगांव है, गंगा नदी की कटान में ढ़ाही बह गया तब शुभनथही बचा। उनके पिता रंजीत मिश्र काफी कड़े स्वभाव के व्यक्ति थे, माता श्रीमती बासमती देवी एक धार्मिक प्रवृत्ति की गृहणी थी। वे तीन भाई थे - जनेश्वर, सुनेश्वर व तारकेश्वर। मंझले भाई सुनेश्वर का देहान्त बाल्यावस्था में हो गया। जनेश्वर जी प्रारम्भ से ही क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत थे। उनका जन्म बीसवीं शताब्दी के चैथे दशक के पूर्वाद्ध में हुआ था। यह वही दौर है जिसमें भारत का इतिहास करवट बदल रहा था, ‘‘समाजवाद’’ का बीजारोपण भी इसी काल-क्रम में हुआ है। स्वतंत्रता एवं समाजवाद को अपना लक्ष्य घोषित करने वाले क्रांतिकारी संगठन ‘‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी’’ की गतिविधियों के कारण आजादी व समाजवाद की लड़ाई अपने उरूज पर थी। एक तरफ भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु की शहादत के कारण जनसामान्य में आक्रोश व्याप्त था, दूसरी तरफ महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा की घोषणा से राजनीतिक वातावरण पूरी तरह गर्म हो चुका था। यह मणिकांचन संयोग है कि जिस वर्ष जनेश्वर मिश्र धरती पर आये,उसी वर्ष भारत में राजनैतिक रूप से अखिल भारतीय समाजवादी संगठन बनाने के प्रयासों को सफलता मिली जिसके परिणामस्वरूप 17 मई 1934 को समाजवाद के भीष्म-पितामह आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में पटना के अंजुमन इस्लामिया कालेज हाल में कांगे्रस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। कहा जा सकता है कि भारत में पृथक अखिल भारतीय समाजवादी दल की अवधारणा का अवतरण जनेश्वर मिश्र के जन्म के साथ ही हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही प्राथमिक विद्यालय में हुई। हाईस्कूल व इण्टर की परीक्षा 5 से 6 किमी0 की दूर पर स्थित पूर्णानन्द इण्टर कालेज (दुबे छपरा) से किया। साधनों का अभाव था, वे पैदल आते-जाते थे, बीच में एक नाला भी पड़ता था जिसमें पानी की अधिकता की दशा में तैरना पड़ता था। इतने कष्टों को सहकर भी वे अध्ययनरत रहे। कोई साधारण बालक होता तो पढ़ाई छोड़ देता। वे बाल्यावस्था से ही विद्रोही स्वभाव के थे। बचपन में एक बारात में वे डोम के लोटे को लेकर मैदान करने गये, उनसे लेकर कई बरातियों ने भी उस लोटे का प्रयोग किया, जब ये बात खुली कि लोटा अस्पृश्य जाति के डोम का है, सभी जनेश्वर पर बिफर पड़े, घर पर भी काफी पिटाई हुई लेकिन जनेश्वर अडिग रहे उन्होंने लोटे के प्रयोग को गलत नहीं माना अपितु छुआ-छूत को बढ़ावा देने वाली मानसिकता का पूरी ताकत से विरोध किया। एक और घटना उनके ननिहाल की है, गर्मी के दिन थे, वे अपने साथियों के साथ बगीचे में खेल रहे थे, अचानक प्यास लगी, बगल में धोबी का परिवार रहता था, उन्होंने धोबिन को ‘‘मामी’’ का संबोधन देते हुए पीने का पानी मांगा। धोबिन संकोच में थी कि ब्राम्हण के पुत्र को कैसे पानी पिलाये? उसने कहा भी ‘‘बाबू तू बाभन का लरिका बाड़ा, हम अछूत, तोहके पानी कइसे देईं (बाबू, आप ब्राह्मण के पुत्र हैं, मैं अछूत हूँ, आपको पानी कैसे दूँ?) लेकिन अस्पृश्यता के घोर विरोधी जनेश्वर कहाँ मानने वाले थे, उन्होंने मांगकर पानी पिया।

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