प्रेम व करुणा के अगाध सागर

brijbhooshan

जनेश्वर जी के आकस्मिक निधन ने बहुतों को रुलाया और बहुत लोगों ने अपने को अनाथ महसूस किया। इलाहाबाद में उनकी शव-यात्रा में उमड़ी भीड़ ने जिस प्रकार अपनी नम आंखों से दिवंगत नेता को आखिरी सलाम किया, मेरी राय में जनेश्वर जी की यही कमाई थी जिसे उन्होंने संजोकर रखा था। उनका बहुत बड़ा परिवार था जिसके सुख-दुःख में वे बराबर शामिल रहते थे। यह कितनी विचित्र बात थी कि जो व्यक्ति आजीवन अपने परिवार से निर्मोही रहा, अपना दर्द पीता रहा, वह दूसरों के दुःख या पीड़ा से कितना व्याकुल हो जाता था, ये वही लोग जानते थे जो उनके निकट रहते थे और यही कारण था कि उनकी मौत पर लोग फूट-फूटकर रोये। जनेश्वर जी समाजवादी आन्दोलन के बहादुर योद्धा थे। उनके जितना साहसी और दृढ़ निश्चयी नेता मिलना मुश्किल ही है। मैंने कई बार देखा कि संघर्ष का नेतृत्व करते समय चाहे जैसा भी हमला उन पर हुआ हो, उन्होंने कदम पीछे नहीं हटाया। इलाहाबाद में बहुचर्चित मानसरोवर कांड में पुलिस जब उन पर लाठियों से प्रहार कर रही थी तो एक छात्र से नहीं रहा गया, वह उन पर लेट गया और लाठियों का प्रहार झेलकर उनको बचाया। ऐसे कई अवसर आए जब वे खून से लथपथ दिखे परन्तु उनके चेहरे पर कभी कोई शिकन देखने को नहीं मिली। सही मायने में वे एक बहादुर अहिंसक सेनानी थे। इतना ही नहीं, वे प्रेम और करुणा के अगाध सागर थे। व्यक्ति से लेकर पशु-पक्षी तक के प्रति संवेदनशील होना उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी ओर उनके स्वभाव को परखने की भी उनमें अद्भुत क्षमता थी। यही कारण था कि जहां वे पागलों के साथ हिल-मिल जाते थे, वहीं बिल्ली और चिडि़यों के बीच आनन्द लेते थे। एक बार एक पागल ने उनसे कहा कि मैं आपके पास केवल इसलिए आता हूं क्योंकि आप इज्जत के साथ हमको खिलाते हैं। सुबह के वक्त जब वे बाहर बैठते थे तो बिल्ली और चिडि़याएं आ जाती थीं। दूध और बिस्कुट खिलाते रहते थे। वे अनासक्त कर्मयेागी थे। पद, धन और सत्ता कभी उन्हें रास नहीं आया। अभाव के दिनों में वे कभी डिगे नही। मुझे याद है कि उन्होंने एक बार जब वे पेट्रोलियम मंत्री थे, रिलायन्स बन्धुओं से अपने घर पर मिलने से मना कर दिया था, जबकि उनका दरबार साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए खुला रहता था। आपरेशन टेबुल पर लेटे हुए उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दिया था। श्री रामनरेश यादव जी के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद चैधरी चरण सिंह ने जनेश्वर जी को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि इससे पिछड़ों में गलत संदेश जायेगा और तब बाबू बनारसी दास मुख्यमंत्री बनाए गये थे। वे विचारों, मूल्यों और मुद्दों के प्रति बहुत ही आग्रही थे। एक दिन अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद राज्यसभा में पहुंच गये। उस दिन केन्द्रीय विश्वविद्यालय विधेयक पर चर्चा होनी थी। विधेयक पर बोलते हुए केन्द्रीय विश्वविद्यालयोे मंे छात्र संघों के चुनाव न होने पर चिन्ता जतायी और शीघ्र चुनाव कराने की मांग की। वे अक्सर कहा करते थे कि मैं संघर्ष में मरना चाहता हूं। 19 जनवरी के संघर्ष के वही सूत्रधार थे और उन्होंने ही मुलायम सिंह जी को लखनऊ और अपने को इलाहाबाद में नेतृत्व करने का सुझाव दिया था तथा कड़कती ठंड में वे धरने पर बैठे। वहां उन्हें ठंड भी लगी, जो उनके मृत्यु का कारण बनी। वे जहां विचारों और सिद्धान्तों के प्रति सबसे अधिक आग्रही रहे, वहीं अपने साथियों अथवा सहयोगियों के प्रति दबाव नहीं बना पाते थे। बहुत ही संकोची स्वभाव के थे। मुलायम सिंह जी से कभी खुलकर पैरवी भी किसी की नहीं करते थे। उन्हें इसका एहसास भी रहता था। मरने के कुछ दिन पहले अपने एक निकटतम सहयोगी से बड़े दुःख के साथ उन्होंने कहा कि मैें कितना बांझ निकला, तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर पाया। सन् 1958 से लेकर मुत्यु तक मेरा उनका बहुत ही निकट का साथ रहा है। स्मृतियां बहुत हैं। उनको इस लेख में संजो पाना बहुत कठिन है। उनका व्यक्तित्व और कद बहुत ही ऊंचा था। उन तक पहुंचना कौन कहे, उसे छू पाना भी कठिन है। परन्तु उनकी याद और उनका आचरण सदा हमें ताकत और रोशनी देता रहेगा। यही उनके प्रति श्रद्धांजलि होगी।

-ब्रजभूषण तिवारी

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