समाजवादी आन्दोलन का जीवंत अध्याय

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जनेश्वर मिश्र के रूप में समाजवादी आन्दोलन का एक जीवंत अध्याय खत्म हो गया है। जनेश्वर जी का पूरा जीवन संघर्ष को समर्पित था और इसकी शुरूआत स्कूल के वक्त में ही हो गई थी।

उनका गाँव बलिया जिले में है और उससे कुछ ही दूर जयप्रकाश नारायण का गांव है। इसलिए अक्सर जेपी की सभायें और भाषण जनेश्वर जी के गांव में हुआ करते थे। शायद यह भी एक वजह रही राजनीति की ओर झुुकाव की। जनेश्वर जी पर राममनोहर लोहिया व जेपी पर गहरा प्रभाव था। लेकिन जब जेपी सर्वोदय आंदोलन की ओर चले गए तो लोहिया ने समाजवादी आंदोलन की कमान थामी, जनेश्वर लोहिया जी के साथ हो गए। लोहिया जी उनसे बहुत स्नेह करते थे। उन्होंने जनेश्वर जी को अपना निजी सचिव बना लिया था। वर्ष 1961 में तो उन्होंने युवा शाखा का महामंत्री बना दिया गया था। लेाहिया जी जनेश्वर जी को कई बार डांट देते थे, लेकिन अगले ही पल उतना ही स्नेह बरसा देते। लोहिया जी की डांट और पुचकार एवं उनके सानिध्य से ही जनेश्वर जी का व्यक्तित्व इतना विशाल बन सका।

जनेश्वर जी से मेरा सम्पर्क 1961 में इलाहाबाद में हुआ था। मैं तब वहंा छात्र नेता था। मैं जिस छात्रावास में रहता था, वहाँ एक शहीद छात्र की याद में 2 अगस्त 1961 को समारोह का आयोजन हुआ। जनेश्वर जी उसके मुख्य अतिथि थे, वहाँ पर मुझे भी भाषण देने का मोैका मिला। मेरे भाषण से प्रभावित होकर ही उन्होंने मुझे अपने साथ जोड़ लिया। मुझे राजनीतिक प्रशिक्षण उन्होंने ही दिया है। जनेश्वर जी में गजब का साहस था। मुझे याद है 1962 में फूलपुर से पंडित जवाहर लाल नेहरू चुनाव लड़ रहे थे, डाॅ0 लोहिया ने उन्हें चुनौती दी। लोहिया के चुनाव की पूरी जिम्मेदारी जनेश्वर जी ने संभाल रखी थी। जनेश्वर जी के परिश्रम और भाषण ने कांगे्रसी खेमे में घबराहट पैदा कर दी। लोहिया जी चुनाव तो नहीं जीत पाये, मगर पंडित नेहरू की लगभग 45 मतदान केन्द्रों पर जमानत जब्त हो गई थी। यह सब जनेश्वर जी के राजनीतिक कौशल के कारण ही संभव हुआ था। इसकी उन्होंने कीमत भी चुकाई। देश पर चीनी हमले के बाद जो ‘डिफेंस आॅफ इंडिया एक्ट’ बना था, उसके तहत 1963 में जनेश्वर जी को भी नजरबंद कर दिया गया।

1964 में नेहरू जी के निधन के बाद फूलपुर की सीट एक बार फिर खाली हो गई। इस उपचुनाव में कांगे्रस की तरफ से पंडित नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित चुनाव लड़ रही थीं। चूंकि तब तक फर्रूखाबाद से लोहिया जी निर्वाचित होकर लोकसभा में पहंुच चुके थे, इसलिए वे वहां से उम्मीदवार नहीं थे। लेकिन फिर भी जनेश्वर जी ने पार्टी के लिए उस चुनाव में जबरदस्त मोर्चा संभाला। बहुत मुश्किल से श्रीमती पंडित चुनाव जीत सकी। वर्ष 1968 के आम चुनाव में तो जनेश्वर जी को पहले ही नजरबंद करवा दिया गया। लेकिन उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि श्रीमती पंडित जहाँ-जहाँ प्रचार के लिए जाती, लोग जनेश्वर जी के बारे में उनसे पूछते। जनेश्वर जी के प्रति लोगों की सहानुभूति कम करने के लिए उन्होंने चाल चली कि यदि जनेश्वर जी को रिहा नहीं किया गया तो वह चुनाव नहीं लड़ेंगी, अंततः जनेश्वर जी को रिहा कर दिया गया। विजयलक्ष्मी जी चुनाव जीत गई, पर कुछ ही दिनों बाद उन्होंने इस्तीफा भी दे दिया।

वर्ष 1969 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के साथ ही फूलपुर लोकसभा क्षेत्र का चुनाव कराया गया। हम लोगों ने पार्टी पर दबाव डाला कि इस बार भी जनेश्वर जी को ही उम्मीदवार बनाया जाए। कांग्रेस ने उनके मुकाबले केशवदेव मालवीय को अपना उम्मीदवार घोषित किया था। 1969 के उपचुनाव में ही फूलपुर की जनता ने जनेश्वर जी को ‘‘छोटे लोहिया’’ की उपाधि दी थी। क्षेत्र के लोगों ने नारा दिया, लोहिया को तो जिता न सके, छोटे लोहिया को जितायेंगे। जनेश्वर जी के पक्ष में जबर्दंस्त हवा चली। न सिर्फ वह स्वयं लोकसभा पहुंचे, बल्कि उनके चुनाव क्षेत्र के पंाच में चार विधान सभा क्षेत्रों में पार्टी उम्मीदवार जीते।

वर्ष 1971 का लोकसभा चुनाव जनेश्वर जी हार गए थे, लेकिन उन्होंने समाजवादी नीतियों के साथ अपना संघर्ष जारी रखा। इसी बीच 1973 में हेमवती नन्दन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए और उन्होंने इलाहाबाद लोकसभा सीट खाली कर दी। 1974 में हुए उपचुनाव में जनेश्वर जी को पार्टी ने वहां अपना उम्मीदवार बनाया। कांगे्रस पार्टी ने उनके खिलाफ इंदिरा जी के वकील सतीश चन्द्र खरे को अपना उम्मीदवार बनाया, लेकिन वह जनेश्वर जी के सामने टिक न सके। आपातकाल में जनेश्वर जी भी जेल गये। काफी समय तक वह जेल में रहे। उनके इसी जुझारू तेवर ने ही अवाम के बीच उन्हें विश्वसनीय भी बनाया। लोग उनकी बात आँखे मूंदकर मानते थे। 1977 में जब इलाहाबाद में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह उनके खिलाफ चुनाव में उतरे, तो उन्होंने 90000 मतों से उन्हें पराजित किया। यह उनके प्रति लोगों के भरोसे की विजय थी। उसके बाद जब जनता पार्टी का विभाजन हुआ, तो वह चैधरी चरण सिंह के साथ रहे।

अपने साथियों का ख़्याल रखने में जनेश्वर जी सहृदय इन्सान थे। बीमार रहने पर भी मेरे हर चुनाव में मना करने के बावजूद वह प्रचार करने पहुंचते। कई बातें मैं संकोचवश उन्हें नहीं कह पाता, लेकिन वह किसी न किसी तरह पता कर लेते थे। मृत्यु से छह महीने पहले की बात है एक दिन संसद गेट पर उन्होंने मुझे देखा। उन दिनों मैं कुछ बीमार था। घर पहुंचकर उन्होंने मुझे फोन किया, तुम्हारी सेहत खराब लग रही थी। मैंने कहा, नहीं सब ठीक है। लेकिन इसके बाद भी उन्हांेने एम्स में मेरा इलाज कर रहे डाक्टर से फोन कर मेरे स्वास्थ्य की जानकारी ली। 19 जनवरी को समाजवादी पार्टी का आंदोलन था, उन्हें मना किया कि आपकी सेहत ठीक नहीं है, आप आराम करें। किन्तु आन्दोलन में शरीक होने के लिए वह जबर्दस्ती इलाहाबाद पहुंच गये। मुझे लगता है कि यदि वह उस दिन इलाहाबाद नहीं पहंुचते तो शायद कुछ और समय तक हमारे साथ रहते, लेकिन संघर्ष से निर्मित जीवन अंततः संघर्ष पर ही समाप्त हो गया।

-मोहन सिंह

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