साक्षात् लोहिया थे ‘‘छोटे लोहिया’’

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मेरे राजनीतिक एवं वैयक्तिक जीवन में जनेश्वर जी का जो स्थान है, वो शब्दों की परिधि से परे है, उसे अभिव्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। वे मेेरे राजनीतिक गुरु हैं, मेरा पूरा प्रयास है कि उन्होंने मुझे जो भी सिखाया मैं उसका अनुसरण करूँ, उनके बताये राह पर चलता रहूँ। मैैंने डा0 राममनोहर लोहिया को सिर्फ पढ़ा है, किन्तु उन्हें जनेश्वर जी के माध्यम से ही समझा। जनेश्वर जी डा0 लोहिया की प्रतिमूर्ति थे, वही तौर, वही तेवर, वही चिंतन, निःसंदेह, ‘‘छोटे लोहिया’’ साक्षात् लोहिया थे। वे अपने चार दशक के प्रभावशाली राजनीतिक जीवन मंें वे कई बार संासद और मंत्री रहे, कई सरकारों को बनाया और गिराया भी, लेकिन जब वे दुनिया से गये तो उनके पास प्रापर्टी के नाम पर कुछ भी नहीं था। उनका जीवन दर्शन उन नेताओं के लिए एक उदाहरण है जो राजनीति को व्यवसाय में बदलकर धनार्जन करते हैं। अपने लिए अथाह संपदा और सुख-सुविधाओं का साधन जुटाते हैं। मैं जब भी दिल्ली जाता था, जनेश्वर जी के यहां पहले जाता था। उनकी मधुर स्मृतियां मेरे जीवन की गौरवमयी थाती है। मुझे आज भी याद है, ‘‘अमर उपाध्याय का फोन कि गुरु जी खाना नहीं खा रहे हैं, इंजेक्शन भी नहीं लगवा रहे हैं, खाने पर आपका इंतजार कर रहे हैं।’’, मैं भागकर फिर कोठी पहुंचा। वहां उन्होंने मेरी पसन्द का खाना बनवा रखा था। जो प्यार सिर्फ माता-पिता से मिल सकता है, मैं उन सौभाग्शाली लोगों में एक हूँ कि मुझे वो प्यार जनेश्वर जी जैसी विभूति से मिला। उनके अंतिम प्रयाण के समय मैं अस्पताल में था, चिकित्सक के लाख मना करने के बावजूद इलाहाबाद पहुंचा। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी दुनिया ही उजड़ गई है। आज भी उनके यादें स्पंदित करती है। यह कहना कि आज के परिप्रेक्ष्य में जनेश्वर के बताये राह पर चलना सम्भव नहीं है, पलायनवादिता है। अपनी सार्वजनिक जिम्मेदारियों से भागना है। जनेश्वर जी शाश्वत दाता थे। उन्होनंे अपनी निजी और राजनीतिक जीवन में सबको दिया है। जिन लोगों को उनसे संबल मिला है, उनका कर्तव्य है उनकी स्मृतियों को आज जनमानस से दूर न होने दें। उनकी जयंती और पुण्यतिथि महज औपचारिकता न बनकर रह जाये। आइये, उनके सपनों को पूरा करने का संकल्प लें।

-राजीव राय

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