गम्भीर व्यक्तित्व के धनी-जनेश्वर जी

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प्रख्यात चिंतक जनेश्वर मिश्र का निधन भारत के समाजवादियों के लिए 21वीं सदी में लगा सबसे बड़ा धक्का था, क्योंकि जनेश्वर जी समाजवाद के पर्याय बने गये थे। श्री मिश्र के निधन से सारे राजनैतिक व्यक्तियों एवं बुद्धिजीवियों को दुःख हुआ था, किन्तु समाजवादियों तथा कमजोर एवं असहाय लोगों को तो ऐसा लगा कि उनकी बात कहने वाला, उनके हित के लिए सदैव चिन्तन करने वाला और उनका सबसे बड़ा हमदर्द अब उनके बीच नहीं रहा। यही वजह थी कि इलाहाबाद में उनके अन्तिम दर्शन के लिए गरीब एवं अमीर, प्राथमिक विद्यालयों से लेकर यूनिवर्सिटी तक के छात्र एवं अध्यापक, वकीलों से लेकर जज तक मजदूरों से लेकर व्यापारी तक सड़कों पर आकर खड़े हो गये थे।

सड़क से संसद तक अपनी वाणी से लोगों को मंत्रमुग्ध करने वाले और अपने तर्कों से विरोधियों को निरुत्तर करने वाले जनेश्वर जी का व्यक्तित्व बहुआयामी एवं अत्यधिक गम्भीर था। वे जितने प्रतिभा के धनी थे, उससे भी ज्यादा मन के बड़े थे। वह स्वभाव से अत्यधिक गम्भीर थे और अगर छिछले स्वभाव का कोई व्यक्ति उनकी आलोचना करता तो उसका कभी नोटिस तक नहीं लेते थे। केन्द्रीय मंत्री केशवदेव मालवीय, प्रसिद्ध एडवोकेट श्री सतीश चन्द्र खरे एवं विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे व्यक्तियों को हराकर लोक सभा में पहंुचने वाले तथा केन्द्र में पेट्रोलियम, दूर संचार, रेल एवं जल संसाधन जैसे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों का उत्तरदायित्व संभाल चुके श्री जनेश्वर जी से मिलकर एवं बात करके हर आम या खास आदमी को सदैव यह अहसास हुआ कि जनेश्वर जी इतने बड़े होते हुए भी कितने सरल एवं सहृदय व्यक्ति हैं। मुझे उन्हें अत्यधिक नजदीक से देखने एवं समझने का सौभाग्य प्राप्त है। मैंने जनेश्वर जी को कभी नाराज होते हुए नहीं देखा था। हाँ, जब किसी ने धन बल के घमण्ड में या दूसरों से प्राप्त ताकत के बल पर कुछ घमण्ड भरी बाते की हों तो जनेश्वर जी को थोड़ा असहज होते हुए मैंने अवश्य देखा था। ऐसे ही एक अवसर पर पार्टी के एक बड़बोले तथाकथित नेता द्वारा परोक्ष रूप से जनेश्वर जी पर कटाक्ष किया गया तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘‘रामगोपाल-जब मैं केन्द्र में दो-दो बार मंत्री बना तब अपनी पार्टी का यह बड़बोला नेता अन्य दलों के छोटे-छोटे नेताओं का झोला उठाकर चलता था और आज कह रहा है कि समाजवादी पार्टी उसके बगैर नहीं चल सकती। यह पार्टी का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है? उस दिन पहली बार मन की पीड़ा उनके होंठों पर आई थी। इसके अलावा मैंने किसी अवसर पर उन्हें आक्रोश प्रकट करते हुए नहीं देखा था।

छात्र जीवन से लेकर अपनी अन्तिम सांस तक उन्होंने संघर्ष किया। संघर्ष रूपी आग में तपकर ही वह कुन्दन बने थे। उनके जैसा युवाओं को प्रेरित करने वाला और बड़े-बड़े सत्ताधीश को ललकारने वाला अब और कोई नहीं। उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए मुझे गुरुवर उदय प्रताप सिंह की दो पंक्तियां याद आती हैं -

जाओ हे ! आचार्य तुम्हारी कथा चलेगी तब तक।
गंगा जमुना के बहने की कथा चलेगी जब तक।।

-प्रो0 रामगोपाल यादव

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